सतयुग दर्शन वसुन्धरा परिसर के कुदरती शान्त, सुन्दर और साफ़-सुथरे वातावरण में स्थित, विशाल गुम्बदाकार ध्यान-कक्ष, चिर स्थाई शांति प्राप्त करने हेतु, सर्व सांझा, श्रद्धा स्थल है। सतयुग की पहचान व मानवता के स्वाभिमान नाम से प्रसिद्ध, इस ध्यान-कक्ष को समभाव-समदृष्टि के स्कूल के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण मानव जाति को मानव-धर्म अनुसार मानवता का पाठ पढ़ाने वाला यह स्कूल स्थापत्य कला का बेमिसाल अनूठा उदाहरण है, जो अपने आप में देखते ही बनता है। इस स्कूल में प्रवेश प्राप्ति हेतु जाति-पाति, अमीरी-ग़रीबी, रंग-भेद, आयु-सीमा व फ़ीस का कोई सवाल नहीं व इसका कोई हकदार नहीं यानि यह सबका सांझा है व यहाँ बड़े-छोटे का कोई प्रभाव नहीं। आपकी जानकारी हेतु इस स्कूल से समभाव-समदृष्टि की युक्ति जो कि सतयुगी संविधान की बुनियाद है, के अनुसार सजन-भाव/मैत्री भाव को अपनाने व वर्त-वर्ताव में लाने की पढ़ाई कराई जाती है। यही नहीं मानव जाति को सच्चाई-धर्म की निष्काम राह दिखाने वाले इस स्कूल से भारत वर्ष की आद्-संस्कृति अर्थात् सतयुगी नैतिकता एवं आचार संहिता का प्रसार कर, परस्पर प्रेम, एकता, समानता और सुख-शांति से जीवनयापन करने का तरीका समझाया जाता है। इसके साथ-साथ मानव-धर्म के अनुकूल संतोष और धैर्य को धारण कर, कैसे सच्चाई-धर्म के मार्ग पर डटे रह मुक्ति के पथ पर निष्कामता से आगे बढ़ते जाना है और परोपकार कमाना है, उसकी भी यहाँ से युक्तिसंगत जानकारी दी जाती है। सारत: सजनों परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की सभी विधाएँ सरलता से उन्नति कर सुख-समृद्धि को प्राप्त हों, इस हेतु इस ध्यान कक्ष अर्थात् समभाव-समदृष्टि के स्कूल से हर संभव प्रयास किया जाता है।
इस द्वार पर सर्वप्रथम लिखा है:-
साडा है सजन राम, राम है कुल जहान
अर्थात् ईश्वर हमारा मित्र, प्रियतम सर्वव्यापक है, उसी को जानो, मानो और वैसे ही गुण अपनाओ।
आगे लिखा है:-
‘शब्द है गुरु, शरीर नहीं है‘
अर्थात् ‘ज्ञानी को नहीं, ज्ञान को अपनाओ‘ यानि ‘निमित्त में नहीं, नित्य में श्रद्धा बढ़ाओ‘ ।
फिर लिखा है:-
सतयुग दर्शन वसुन्धरा
अर्थात् पृथ्वी पर ऐसा स्थान जहाँ से सतयुग की आद् संस्कृति व आचार-संहिता का दर्शन कराया जाता है।
आगे इस पावन धरा वसुन्धरा की महत्ता को दर्शाते हुए बहुत ही सुन्दर ढंग से लिखा गया है-
‘हे सतयुग दर्शन वसुन्धरा, यह सृष्टि तेरे अर्पण है।
हर ज्ञानी और अज्ञानी का सत्य स्वरूप तूं दर्पण है॥‘
अर्थात् वसुन्धरा का यह मुख्य द्वार सम्पूर्ण मानव जाति को आवाहन देते हुए कह रहा है कि इस पावन धरा वसुन्धरा पर आओ और अपने ज्ञान-अज्ञान की तुलना करके अंतर्निहित मनुष्यत्व के सत्य को परखो। इस तरह खुद में पाई विकृतियों का ‘समभाव-समदृष्टि के स्कूल‘ में पढ़ाई आत्मिक ज्ञान की विद्या अनुसार, शोधन कर आत्मसुधार कर लो।
मानवीय सद्गुणों यथा संतोष, धैर्य, सच्चाई, धर्म, सम, निष्काम व परोपकार के प्रतीक, ये सात द्वार हर मानव को श्रेष्ठता का प्रतीक बनने हेतु, संतोष-धैर्य धारण कर, सच्चाई-धर्म के मार्ग पर निर्भयता से चलते हुए, समवृत्ति द्वारा निष्काम-भाव से परोपकार करने की प्रेरणा दे रहे हैं।
सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ से उद्धृत इस कीर्तन के भावार्थ से स्पष्ट होता है कि युग परिवर्तन के सत्य को दृष्टिगत रखते हुए, सतयुग की चाल अनुरूप स्वयं में स्वाभाविक परिवर्तन लाने हेतु इस पावन धरा वसुन्धरा पर समभाव-समदृष्टि का स्कूल खोल दिया गया है। इस स्कूल का खुलना अपने आप में हर मानव के लिए, उसके हृदय में मानव-धर्म सत्यता से स्थापित करने हेतु, एक विशेष ईश्वरीय सौगात है। अत: अपना भाग्य जगाने के लिए नि:संकोच इस स्कूल में दाख़िल हो जाओ और मानो कि समभाव-समदृष्टि का शब्द किसी प्रकार से भी कठिन नहीं है। इस हेतु तो बस समभाव-समदृष्टि के शाब्दिक अर्थों के अनुरूप समान प्रकृति में ढल व सबके प्रति समान दृष्टि रखते हुए, राग-द्वेष से रहित हो निर्द्वन्द्व होना है। आशय यह है कि समभाव-समदृष्टि की युक्ति अनुसार अपने स्वभावों पर पकड़ रखते हुए, तद्नुकूल अपना आचरण यानि चारित्रिक स्वरूप दर्शाना है। इस तरह यानि हर हाल में ‘सजन वृत्ति‘ को दृढ़ता से धारे रखते हुए, सबके साथ एक जैसा वर्ताव करना है और अपना व सबका सजन बन जाना है। इस प्रयोजन में सफलता प्राप्ति हेतु किसी की भी ऐसी-वैसी मंदी बात को अपने हृदय में ठहरने की जगह नहीं देनी अन्यथा वह बात आपके हृदय में कल्पना उत्पन्न कर आपको निंदा-चुगली करने पर विवश कर देगी। ऐसा न हो इस हेतु आपने निरर्थक बातों को एक कान से सुनना है और दूसरे कान से बाहर निकाल देना है। इस तरह अपने ख़्याल को हमेशा स्वच्छ अवस्था में साधे रखना है ताकि आपका मन सदा एकरस परमेश्वर में लीन बना रहे और आप दिल से कह उठो कि ‘सजन हम हैं सजन तुम हो‘। यही है जनचर, बनचर, जड़-चेतन यानि कुल सृष्टि को सजन मानते हुए व जानते हुए बौद्धिक तौर पर सजनता का प्रतीक बन श्रेष्ठता को प्राप्त होना।
सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ से उद्धृत इस कीर्तन से स्पष्ट होता है कि जो भी इंसान, पुरुषार्थ दिखा समभाव-समदृष्टि के सबक़ को धारण कर, जगत जहान को एक निगाह एक दृष्टि से देखता है यानि जो मन मन्दिर प्रकाश है, वही प्रकाश जग अन्दर, जनचर, बनचर, जड़-चेतन सब में देखता है, वह सजन आत्मिक ज्ञान प्राप्त कर त्रिकालदर्शी यानि भूत, वर्तमान व भविष्य को जानने वाला हो जाता है। फिर जो कोई विरला सजन जीवन की हर परिस्थिति में अपना व्यावहारिक स्वरूप ठीक समभाव- समदृष्टि के सबक़ अनुकूल साधे रखने का पराक्रम दिखा, फर्स्ट का नतीजा दिखाता है, वह निर्विकारी, महान आत्मा सहज ही परमधाम पहुँच अपना नाम रौशन कर लेता है। आशय यह है कि जिस किसी की भी बुद्धि समभाव-समदृष्टि धारण करने का औचित्य पहचान लेती है, उस समचित्त/समबुद्धि के लिए जन्म-मरण, रोग-सोग, खुशी-गमी, ग़रीबी-अमीरी का कोई सवाल नहीं रहता क्योंकि वह बेअन्त तो अमीरों का भी अमीर हो बिन सूरजों प्रकाशमान हो उठता है।
यह विचार बिन्दु ‘सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ‘ में वर्णित आत्मिक ज्ञान की पढ़ाई का सार रूप हैं। इन्हें विचार में लाने वाला मानव, आत्मीयता से इस जगत में विचरते हुए परस्पर सजन-भाव यानि मैत्री भाव का वर्त-वर्ताव करने में दक्ष हो जाता है।
यह शंख आद्य पवित्र ध्वनि का सृजक है व सृष्टि रचना के आधारभूत पंचतत्वों को प्रदर्शित कर रहा है।
यह चक्र जगत कल्याण और सत्य स्थापना हेतु सजन पुरुषों की सुरक्षा का माध्यम है और निष्कामता, सजन-भाव, समभाव-समदृष्टि और विचार की महत्ता को प्रदर्शित कर रहा है।
यह गदा शांति-शक्ति का प्रतीक है तथा यह धारक की संतोष, धैर्य, सच्चाई, धर्म व सम अवस्था को प्रदर्शित कर रहा है।
यह पदम् पवित्रता और सुंदरता की अद्वितीय मिसाल है एवं संकल्प-स्वच्छ, दृष्टि-कंचन, जिह्वा-स्वतन्त्र, एक दृष्टि एक दर्शन व ब्रह्म की महत्ता को दर्शा रहा है।
यह द्वार ‘आओ जी-जी आयां नूं‘ द्वारा आपका स्वागत करते हुए आपको जना रहा है कि अब आप समभाव-समदृष्टि के स्कूल में प्रवेश करने जा रहे हैं जहाँ आपको ‘शब्द है गुरु, शरीर नहीं है‘ का चलन मानते हुए, इस स्कूल में पढ़ाई करने हेतु अपना सीस अर्पण करना होगा। सीस अर्पण यानि बगैर किसी दबाव के व अपनी ख़ुशी से अपने आप को ईश्वर के निमित्त समर्पित करना। उस ईश्वर के हुक्म को सर्वोपरि मान उसकी पालना करना और उस पर अपना तन-मन-धन सब वार देना। इस द्वार में प्रवेश करने से पूर्व सृष्टि के पालनहारे को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए बोला जाता है:-
शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी,
हरि ओ३म् नमो नारायण निमश्कारनिंग, निमश्कारनिंग, निमश्कारनिंग।
यह वॉटर बॉडी मायावी संसार-समुद्र को प्रदर्शित करती है। यह संसार समुद्र दर्शाता है कि जो भी इस संसार को दु:खमय जान, उसमें उलझता या फँसता नहीं, वह पराक्रमी ही संसार रूपी सागर को पार कर मोक्ष प्राप्त कर पाता है। इसके विपरीत जो इस संसार की सुन्दरता की ओर आकर्षित हो भोगविलास में फँस जाता है वह बार-बार जन्म ग्रहण कर नाना प्रकार के दु:ख भोगता है।
भूमितल से निचला यह बाह्य भाग दर्शाता है कि इस भवन का आधार क्रमश: पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व आकाश, वे पाँच तत्व ही हैं जो मानव शरीर का आधार भी हैं। यह अपने आप में स्पष्ट करता है कि पाँच तत्वों से निर्मित यह मानव शरीर नश्वर होते हुए भी, अंतर्निहित ज्योति स्वरूप पारब्रह्म परमेश्वर का वास होने के कारण, उसकी ब्रह्म सत्ता द्वारा इस जगत में कुछ भी कर दिखाने व प्रदान करने की सामर्थ्य रखता है।
धुर से आया हुआ यह इलाही व पातशाही रंग चारों वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को आवाहन दे रहा है कि आओ, वर्णों के भेदभाव से ऊपर उठकर परस्पर एक ही इलाही रंग में रंग कर एक भाव हो जाओ और सदा एकता व एक अवस्था में बने रह जगत का कल्याण करो।
यहाँ हरा रंग धरती का प्रतीक चिह्न है व हरियाली व खुशहाली को दर्शा रहा है।
नीला रंग जल का प्रतीक चिह्न है जो पवित्रता, निर्मलता और शीतलता को दर्शा रहा है...
तथा आसमानी रंग आकाश का प्रतीक चिह्न है जो शून्यता, असीमता व एकांत स्थान को जना रहा है।
यह आद् जोत परमेश्वर की प्रतीक है।
यह इन्द्रियाँ अंत:करण की परिचायक हैं।
यह शंख-चक्र-गदा-पद्म आत्मिक शक्ति के रूप में आत्मा में व्याप्त सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ परमात्मा का द्योतक है।
इस भूमिगत कक्ष में, बिना किसी भेदभाव के, समाज के हर वर्ग के सदस्य के लिए, सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ से उद्धृत आत्मिक ज्ञान के आधार पर, समभाव-समदृष्टि की युक्ति अनुसार, सजन भाव/मैत्री भाव को अमल में लाने की पढ़ाई कराई जाती है ताकि प्रत्येक इंसान हृदय सुशोभित अपनी चेतन शक्ति आत्मा का सुबोध करने में सक्षम हो, यथार्थता अनुरूप जीवन जीने के योग्य बन सके। आप चाहें तो आप भी ध्यान कक्ष की वेबसाइट पर जाकर इन कक्षाओं में पढ़ाए गए सबकों के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और शरीरों व तस्वीरों की मानता करने के स्थान पर, प्रणव मंत्र, जो आद् अक्षर है, उसके अजपा जाप द्वारा, अपनी निगाह अंतर आत्मा में व्याप्त परमात्मा पर स्थिर रखते हुए, चराचर जगत में सर्वव्याप्त भगवान का दर्शन कर सकते हैं और समभाव-समदृष्टि का प्रतीक बन सकते हैं।
यह भूतल सर्गुण द्वार है। सर्गुण - गुणों से युक्त ब्रह्म का साकार रूप है। यहाँ दीवान लगता है तथा तरह-तरह के रंगारंग मनमोहक लुभावने नज़ारे होते हैं।
अक्ष रूप में सुशोभित यह गदा शांति-शक्ति का प्रतीक है और हृदय की शुद्धता का सूचक है। यहाँ सब उस निर्गुण परमेश्वर का यानि सर्व एकात्मा के रूप में भासित अपनी ही आत्मा का करबद्ध नतमस्तक होकर एहसास करते हुए बोलते हैं:-
सतवस्तु के वाली शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, श्री साजन जी की जय
फिर समभाव-समदृष्टि की युक्ति द्वारा सजन-भाव अमल में लाने हेतु सब इस शांति-शक्ति के प्रतीक के आगे सीस अर्पण करते हैं। ऐसा करने से उन्हें अपने हृदय में असीम शांति का अनुभव होता है। फिर इस शांति का अपने रोम-रोम, रग-रग, हद-हद, पब-पब में प्रसार करने हेतु वे अपने मन को शांतिदाता शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी श्री विष्णु भगवान यानि सभी जीवों/सुरतों के साजन परमेश्वर की ओर उन्मुख कर, एकाग्र व स्थिर कर लेते हैं और पालनकर्ता परमेश्वर को अपना सर्वस्व अर्पण कर, उनके सम्मुख करबद्ध होकर अफुरता से इस प्रकार शांति-शक्ति माँगते हैं:-
हमें शांति दो, हमें शक्ति दो, हमें शांति दो, हमें शक्ति दो
इन फरमानों को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि सतवस्तु में क्या होता है और इस श्रेष्ठ युग में प्रवेश पाने हेतु एक इंसान को क्या करना होगा।
यह एकता का प्रतीक चिह्न, एक मानव की अंतर्निहित शक्तियों और उन्हीं अनुरूप अपनाने योग्य भाव-स्वभावों को दर्शाता है।
निर्गुण का अर्थ है गुण, नाम, विशेषता व रूप, रंग, रेखा से रहित निराकार ब्रह्म। निर्गुण में नितांत ही एकांत व प्रकाश ही प्रकाश है और यहाँ परमात्मा को ज्योति-स्वरूप नाम से जाना जाता है।
यह संदेश व फरमान एक मानव के असलियत ब्रह्म स्वरूप के विषय में स्पष्टता दे, उसे ब्रह्म भाव अपना, इस विचार पर खड़ा होने का आवाहन दे रहे हैं:-
‘विचार ईश्वर आप नूं मान, अवविचार ईश्वर इक जान॥
विचार इक अपना आप ही मान, अवविचार कुल दुनियां जान॥
विचार करो है ईश्वर अपना आप, अवविचार ईश्वर है इक साथ॥
ईश्वर है अपना आप प्रकाश, ईश्वर है जे अजपा जाप‘॥
यह ज्योति ध्यान-कक्ष के सर्वोच्च शिखर पर प्रकाशित आद् जोत का प्रतिबिम्ब है तथा ‘ज्योति स्वरूप है अपना आप, हम तो हैं ओही प्रकाश‘ के सत्य को प्रकट करती है।
प्रकाश का मूलाधार होने के नाते यह सूर्य मानव की आत्मिक ऊर्जा के स्रोत को जना रहा है और यह संदेश दे रहा है कि हे मानव ! स्थिर ध्यान दृष्टि द्वारा आत्मा में व्याप्त परमात्मा रूपी सूर्यों के सूर्य के प्रकाश को ग्रहण कर अपने अलौकिक स्वरूप को समझ व सर्गुण-निर्गुण के खेल खेलते हुए निर्वाण अवस्था को प्राप्त हो विश्राम को पा जा। जानो जब जीव निर्वाण में पहुँच जाता है तो वह शून्यता को प्राप्त हो निश्चल व शांत हो जाता है। इस तरह उस सूर्यों के सूर्य परमेश्वर की जोत में अस्त हो यानि रूप, रंग व रेखा से रहित हो, वह अपने सच्चे घर परमधाम में पुन: प्रवेश कर विश्राम को पा जाता है। परमधाम ही सजनों उस आद् ज्योति स्वरूप, परब्रह्म परमेश्वर का शोभा स्थल व निवास स्थान है। इस पवित्र स्थान पर पहुँच जीव मोक्ष को पा जाता है। आप भी सजनों जीवन के इस यथार्थ सत्य को समझ, अखंड शांति व विश्राम पाने हेतु, इस स्कूल में पढ़ाई जा रही समभाव-समदृष्टि की युक्ति अपनाओ और सजन-भाव का व्यवहार कर एक अच्छे मानव बन मोक्ष के अधिकारी बन अपना जीवन सफ़ल बनाओ।